Sunday 21 April 2013

इन राहो के मुसाफिर....


राह चलते हुअ अक्षर ये ख़याल आता है....
कहाँ है मंज़िल ओर ये रास्ता कहा जाता है....
क्यो की हर रह पे...
हमसफर तो मिले बहोत..पर चार कदम साथ चलते है...
फिर किसी मोड़  पे बिछड़ जाते



क्यू की इस दुनिया की भीड़ मे पता ही नही चलता की इंसान कितना खोया है....
क्यू की यू तो आँखे खुली ही है पर फिर भी लगता है जाने क्यू सोया हुआ है...?..!!!



हमे साथ चल रहे  लोगो के होठों की हसी तो दिखती ही..पर हम उसके मन के अंदर कहाँ ज़ाक पाते है.....
चलते चलते ये भी देखा की ये दुनिया भी कितनी हसीन है पर मार-मार के जीने वाले मुसाफिरो का मंज़र कहाँ देखा...
वो होता है ना सिशे का मकान तो  तूने बना लिया...
पर वखत के हाथो मे  पथर तूने कहाँ देखा......



ज़िंदगी की राहों पे मिलना बिछड़ना तो दस्तूर है ..ओर यही तो किस्सा मशहूर है इस राहों  का..हा बीते हुआ लोग कभी लौट के नही आते इन राहों पे ..पर ये सबसे बड़ा कुसूर ही तो  है ज़िंदगी का
पर कभी ना कभी इन राहों मे कोई एक मुसाफिर मिलता ही है हमारी कास्ती का ही होता है .....
जिसे हम जहा कहते है वही उतार जाता है...........ओर सफ़र मे मिला वो मुसाफिर कभी-कभी ज़िंदग़ी भर के लिए हमसफर भी बन जाता है 'जनाब........

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